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निर्णय के तट पर Nirnay Ke Tat Par

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Description

शास्त्रार्थ –

स्थान – “कचौरा” जिला अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

दिनांक – सन् १९२३ ई.

विषय – क्या परमेश्वर निराकार है ?

आर्यसमाज की ओर से शास्त्रार्थकर्ता – श्री पण्डित बिहारीलाल जी शास्त्री “काव्यातीर्थ”

पौराणिक पक्ष की ओर से शास्त्रार्थकर्ता – व्याकरणाचार्य पण्डित चन्द्रशेखर जी (शंकराचार्य

निरञ्जनदेव जी तीर्थ )

साहयक – श्री करपात्री जी महाराज

श्री पण्डित चन्द्रशेखर जी व्याकरणाचार्य –

भाईयों ! सुनों !!! आर्याभिविनय पुस्तक स्वामी दयानन्द की बनाई हुई है जिसमें दयानन्द ने लिखा है कि – “मेरे सोम रसों को है ईश्वर सर्वात्मा से पान करों” क्या निराकार सोमरस पान करता है ? यह ईश्वर को भोग लगाना नही है तो और क्या है ? हम श्री ठाकुर जी को भोग लगाते है तो यह आर्यसमाज आक्षेप करते है, और आप निराकार को सोमरस पिला रहे हो तो कुछ नही ? “निराकार सोमरस कैसे पी रहा है ? हमारे भगवान तो साकार है तो हमारा भोग लगाना तो उचित ही हुआ न ? परन्तु तुम आर्यों का कमाल है, कि एक तरफ उसे निराकार मानों, दूसरी तरफ उसे सोमरस पिलाओ | ये कैसे सम्भव हो सकता है ?

श्री पण्डित बिहारीलाल जी शास्त्री –

महाराज ! वास्तव में निराकार ही खाता पीता है, साकार नही ! ! देखियें कैसे ? मै समझाता हूँ | जब जिस समय इस शरीर से जीवात्मा निकल जाता है, तब यह साकार शरीर कुछ भी नही खाता पीता है, अगर किसी ने मुर्दे को खाता पीता हुआ देखा हो तो बताओं ? (जनता में हसी …) निराकार ईश्वर सर्वत्र व्यापक है | वह सोमरस में भी व्यापक है | इसी कारण यहा सर्वात्मा शब्द का प्रयोग हुआ है | सर्वव्यापक ईश्वर को हमारे अर्पित सोमरस का ज्ञान है | सर्वज्ञत्व से वह पान करता है, यह ज्ञानरूपी पान अलंकारित वाक्य है, देखिये वेदान्त दर्शन मे ईश्वर को अत्ता अर्थात खाने वाला कहा है | देखिये – “ अत्ताचराचर ग्रहणात्” | क्योंकि वह ईश्वर सर्वव्यापक होने से सबका खाने वाला है | आपके ही मान्य ग्रन्थ वेदान्त दर्शन का ही यह वचन मैंने बोला है |

श्री पण्डित चन्द्रशेखर जी व्याकरणाचार्य –

ईश्वर साकार ही भोग ग्रहण करता है | निराकार को भोजन की आवश्यकता नही | सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है – “सोमसद: पितरस्तृप्यन्ताम्” यह चन्द्रलोक में रहने वाले पितरो का तर्पण नही तो और क्या है ? आर्य समाजियों के गुरु ग्रन्थ में पितरों के तर्पण मानते है, परन्तु आर्य समाजी पितृ श्राद्ध का खंडन करते है, यह अपने ग्रंथो का तथा अपने गुरु का विरोध है |

श्री पण्डित बिहारीलाल जी शास्त्री –

पण्डित जी ! निराकार भगवान सर्वव्यापक है ! साकार सर्वव्यापक नही है, साकार सर्वव्यापक हो ही नही सकता है | जिसे खाने पीने की आवश्यकता हो तो वह भगवान हो ही नही सकता | भगवान सब आवश्यकताओ ओर इच्छाओ से मुक्त होता है | पूर्ण काम है | वह अपनी सर्वज्ञता से हमारे द्वारा किये गये सोमरस, शुद्ध प्रेम भावो को जानते है, स्वीकार करता है | यहां सोमरस कोई भौतिक पदार्थ नही, किन्तु इस मन्त्र में उस सोमरस का संकेत है जिसे वेद ने कहा है – “सोमं यं ब्राह्मणा विदुर्नतस्यापुनाति कश्चन” अर्थात् वह सोमरस जिसे विद्वान् ब्राह्मण जानते है | उसको कोई नही खाता है, अर्थात वह है, शुद्ध ब्रह्मज्ञान, आध्यात्मिकता, भगवान का प्रेम उसका रस तो योगी ही ले सकता है | उसी प्रेम भाव को भक्त अपने ईष्ट देव को अर्पित कर रहा है | और सोम, सदपितरो के तर्पण से पहले यह जानना चाहिए कि पितर है क्या ? देखिये श्री उव्वट और आचार्य महीधर जी के यजुर्वेद भाष्य में लिखा है – “ ऋतवों वै पितर:” ये छै ऋतुये पितर है | इन्ही को वेदों में कहा है – “नमो व: पितर: शोषाय नमो व: पितरो रसाय “ आदि |

ये ऋतुए चन्द्रमा से सम्बन्ध है | अत: सोमसद कही गई है | ऋतु – ऋतु पर यज्ञ करके इन पितरो को तृप्त करो तो कोई रोग नही फैलेंगा, प्रकृति में विकार नही होगा | यदि सब मरने वाले चन्द्रलोक में जाकर पितर बन जाते है, तो पुनर्जन्म किसका होता है ? और चन्द्रलोक में जन्म लेने वालो की तृप्ति हम क्यों करे ? प्रजापति भगवान सबका प्रबन्ध तत् कर्मानुसार ही करते है | पण्डित जी महाराज ! आपको पता होना चाहिए कि कर्मो का फल संस्कार द्वारा ही मिलता है | संस्कार सूक्ष्म शरीर पर स्वकृत कर्म से पड़ते है | परकृत कर्म के द्वारा नही | मृतक श्राद्ध मान लेने से स्वकृत कर्मफल हानि और परकृत कर्म फलाप्ति से दो दोष आते है, और कर्म सिद्धांत को दूषित कर देते है , क्या “तमाशा” है कि अपनों की तो सुध बुध है, नही, दौड़ते है चन्द्रलोक तक थाल लिये पितरों को ! देश के सहस्त्रो बालक भूख से बेचैन होकर इसाई बनते है | आप चन्द्रलोक की प्रजा का पालन करने चले है |

नोट –

इन बातों पर जनता में जबरदस्त अट्टहास हुआ जिससे पौराणिक पण्डित शास्त्रार्थ के बीच में ही बिगड़ खड़े हुए, कि हमारी बातो को तमाशा कह दिया, उनसे बहुतेरा अनुनय विनय किया गया कि “तमाशा” शब्द, अपशब्द वा गाली नही है | ये उर्दू का शब्द है | जो क्रीडा व खेल के अर्थो में आता है पर वे न माने, क्योंकि वे तो पीछा छुडाने का कोई न कोई बहाना ढूढ रहे थे, वह बहाना उनकों मिल ही गया, और वह क्रोध भरे अपने पुस्तक भी मेज पर ही छोडकर चल दिये |

इस शास्त्रार्थ के बाद वे कभी फिर यहा नही पधारे, और आर्य समाज की चहुंमुखी उन्नति हो उठी, बाद में यहा पर आर्यसमाज मन्दिर बना पाठशाला खुली, बड़े – बड़े विशाल उत्सव होते रहे | ये केवल उसी शास्त्रार्थ का प्रभाव था |

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